शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

हम शहीदों की, शहादत का...

(1)

हम शहीदों की, शहादत का चलन भूल गये।

खुदपरस्ती के लिए, हुब्बे-वतन भूल गयें।।

ज़िद में हाय! बदन, बाँट लिया जननी का,

बिस्मिल-अश्फाक के, ख़ाबों का चमन भूल गयें।

बारहा मिलते रहें, ईद और होली पर,

इक इमारत के लिए, गंगों- जमन भूल गये।

(2)

न तुम्हारे दर से गुज़रे हम, न हम तेरी डगर जायें।

तुम्हारे ग़म के मारे हम बता दो फिर किधर जायें।।

हमारा आना ही आखिर, तुम्हें क्यों कर अखरता है

नहीं है रोक उन पर क्यों, जों घर शामो सहर जायें

यहाँ तुम मिल नहीं सकते, वहाँ फिर क्या मिलोगे तुम

दिखा दो राह कोई ऐसी, कि दो आलम गुज़र जायें।

(3)

कुछ मत पूछो हाल किसी का।

उलझा हुआ, सवाल किसी का।।

बहक न जाना, पल भर छू के,

महका हुआ, रूमाल किसी का।

शोहरत का, हकदार बना है,

किस्मत देख, कमाल किसी का।

(4)

कोई उसको जान न पाया।

कोशिश की पहचान न पाया।।

कभी नहीं बर्तन टकराये,

ऐसा कोई मकान न पाया।

सबको बराबर करने निकला

खुद जो उँगली समान न पाया।

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

वर्ड वेरिपिकेशन हटा लें तो टिप्पणी करने में सुविधा होगी. बस एक निवेदन है.

डेश बोर्ड से सेटिंग में जायें फिर सेटिंग से कमेंट में और सबसे नीचे- शो वर्ड वेरीफिकेशन में ’नहीं’ चुन लें, बस!!!

संगीता पुरी ने कहा…

नए चिट्ठे के साथ आपका स्वागत है........आशा करती हूं कि आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिट्ठाजगत को मजबूती देंगे........ बहुत बहुत धन्यवाद।

अभिषेक मिश्र ने कहा…

बारहा मिलते रहें, ईद और होली पर,

इक इमारत के लिए, गंगों- जमन भूल गये।

Achi lagi rachna aapki. swagat mere blog par bhi.

योगेश ‘बेताब’ ने कहा…

उड़न तश्तरी जी
आपका सुझाव अच्छा लगा, बहुत-बहुत धन्यवाद।