दर-दर रोज भटकना किस्मत,
पल-पल जीना मरना किस्मत।
पानी के जुगाड़ में अक्सर,
कुंआ खोदते रहना किस्मत।
नहीं ठिकाना कल का कोई,
बस अपने पर हंसना किस्मत।
उस आतिशी नजर ने, ढाया है ये कैसा कहर
कि पता दर-दर पूछता, दिल हाथ में ले के शहर।
किसी सूरत गिरे दीवार, ये कोशिश हमारी है
किसकी साजिश है कि हंगामा रहे अक्सर।
एक चने की दाल हैं दो, ये कभी सोचा है क्या
घोलता रहता फिजा में, सिर्फ नफरत का जहर।
एक तरफा उल्फत का रिश्ता, जब से जाना तोड़ दिया
धीरे-धीरे उसके घर भी, आना जाना छोड़ दिया।
दिल सादा अब धुला धुला सा, खादी जैसे कलफ लगी
मंजिल की खातिर राही ने, पथ को सुहाना मोड़ दिया।
गाहे-ब-गाहे रस्ते में, नजरें यूं टकराती हैं
कुदरत के हाथों ने ज्यूं, टूटा आईना जोड़ दिया।
दर्द की अठखेलियां, अब तो सही जाती नहीं
खामोशियों की दास्तां, हरगिज कहीं जाती नहीं।।
सांस का ये कर्ज चुकता हो, कहां किसको पता,
इसकी चर्चा आम है, जो की कभी जाती नहीं।
जिन्दगी ताउम्र औरों के लिए जीता रहा
अपनों की खुदगर्जियां, अब और जी जाती नहीं।
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