गुरुवार, 18 सितंबर 2008

आई जो बरखा…

आई जो बरखा, बकंइयां-बंकइयां।
चिल्लाए खेत रे, गोंसइयां-गोंसइया।।

होंठ भीगे धरती के

झूमे गाय बछरू,

पन्नि-पन्नि बोल सजे

घनन-घनन घुंघरू,

बेवाई सहेजे, किसान पंइया-पंइया।

बिरवाही डहर चलीं

गुमसुम कुदाले,

गौरइया बोले है

धूल क्यों उछाले,

मेड़-डाँड़ मस्ती में, यार ठंइयां-ठंइया।

पलिहर की आस जगी

जरई का खेत बने,

बगुलों के भाग जगे

गिद्ध बाज बने-ठने,

सोंधी सी खुश्बू, भोगे घमछईयां।

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