सुधियों को सौगात मिली है,
आंसू के कुछ कन।
हुआ जाता बनवासी मन।।
इन्द्रधनु से बीते पल साथ,
विरह के घन में निकले आज,
स्वप्न के नील-गगन में प्राण,
भटकता फिरे पखेरू आज,
दृष्टि से परे वही प्रतिबिम्ब
महक जाता जिससे दर्पन।
आस के आँचल पर एक फूल
टाँकती है कर्पूरी साध,
शून्य में कहीं पिरहिणी प्रीति
कसक दे जाती है एकाध,
महावर रचती पीड़ा पाँव
तोड़ती रह-रह यादें तृन।
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