शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

राहें-तरक्की से, गुज़रा वो ज़माना...

राहे-तरक्की से, गुज़रा वो ज़माना है।
फिर भी कुछ लोगों का, फुटपाथ ठिकाना है।।
बेवा की ज़मी हड़पी, कानून का मुजरिम है,
पर आज की संसद में, अन्दाज़ शहाना है।
कहीं पीना बुराई है, कहीं शौक अमीरों का,
हर ऐब, हुनर उनका, कहता ये ज़माना है।

दोस्त ही जब, दुश्मनी का हक अदा करने लगे।
क्या करे हम दोस्ती के, नाम से डरने लगे।।
अपने पराए में, फ़रक, करना बहुत मुश्किल जनाब़
दौरे-हाज़िर में सभी, चेहरा कई रखने लगे।
उनको बगले झांकते, देखा मुसीबत में हुजूर,
जो हमारी हाँ में हाँ, थे कभी करने लगे।

जो वक्त के हिसाब से, बदल नहीं सके।
कभी जहाँ के साथ-साथ, चल नहीं सके।।
हँसीं की मिसाल हुए, कहलाए बैकवर्ड,
पर अपने दायरे से वो निकल नहीं सके।
तमगा मिला कि साला, ईमानदार है,
फिर भी वो अपनी रूह से निकल नहीं सके।

उंगली पकड़ जिसको, चलना सिखाया।
वही आज देखो मुकाबिल है आया।।
सलामत रहे ये है दिल की दुआ,
होम करते भले हाथ अपना जलाया
किस्मत के धनी हैं, वो इस दौर में,
सर पे है जिनके, बुजुर्गों का साया।

दर-दर रोज भटकना किस्मत...

दर-दर रोज भटकना किस्मत,
पल-पल जीना मरना किस्मत।
पानी के जुगाड़ में अक्सर,
कुंआ खोदते रहना किस्मत।
नहीं ठिकाना कल का कोई,
बस अपने पर हंसना किस्मत।
उस आतिशी नजर ने, ढाया है ये कैसा कहर
कि पता दर-दर पूछता, दिल हाथ में ले के शहर।
किसी सूरत गिरे दीवार, ये कोशिश हमारी है
किसकी साजिश है कि हंगामा रहे अक्सर।
एक चने की दाल हैं दो, ये कभी सोचा है क्‍या
घोलता रहता फिजा में, सिर्फ नफरत का जहर।
एक तरफा उल्‍फत का रिश्ता, जब से जाना तोड़ दिया
धीरे-धीरे उसके घर भी, आना जाना छोड़ दिया।
दिल सादा अब धुला धुला सा, खादी जैसे कलफ लगी
मंजिल की खातिर राही ने, पथ को सुहाना मोड़ दिया।
गाहे-ब-गाहे रस्ते में, नजरें यूं टकराती हैं
कुदरत के हाथों ने ज्‍यूं, टूटा आईना जोड़ दिया।
दर्द की अठखेलियां, अब तो सही जाती नहीं
खामोशियों की दास्तां, हरगिज कहीं जाती नहीं।।
सांस का ये कर्ज चुकता हो, कहां किसको पता,
इसकी चर्चा आम है, जो की कभी जाती नहीं।
जिन्‍दगी ताउम्र औरों के लिए जीता रहा
अपनों की खुदगर्जियां, अब और जी जाती नहीं।

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

अमावस

पढ़े ककहरा खिली अमावस

खोले स्याह किताब।

मुँह बोले माई के बिरना

दिखते नहीं जनाब।।

किसके कजरौटे से बिखरा

इत्ता सारा काजल,

करिया भौजी दिशा को जायें

थाम नंद का आंचल,

मुनियां परछांई को पूछे

देवे कौन जवाब़?

पुतरी ने औकात आंक ली

पसरी देखी कालिख,

डहर, मेड़, पगडंडी गुमसुम

सन्नाटा है मालिक,

कौन रात की बही टटोले

मुडिया लिखा हिसाब।

काली चौरा ठुम्मुक-ठुम्मक

करें घिया की बाती,

चिहुंके पीपल वाला पांखी

जैसे गली बिसाती,

अंधियारा हो चुका सयाना

बुने सुनहरा ख्वाब!

हम शहीदों की, शहादत का...

(1)

हम शहीदों की, शहादत का चलन भूल गये।

खुदपरस्ती के लिए, हुब्बे-वतन भूल गयें।।

ज़िद में हाय! बदन, बाँट लिया जननी का,

बिस्मिल-अश्फाक के, ख़ाबों का चमन भूल गयें।

बारहा मिलते रहें, ईद और होली पर,

इक इमारत के लिए, गंगों- जमन भूल गये।

(2)

न तुम्हारे दर से गुज़रे हम, न हम तेरी डगर जायें।

तुम्हारे ग़म के मारे हम बता दो फिर किधर जायें।।

हमारा आना ही आखिर, तुम्हें क्यों कर अखरता है

नहीं है रोक उन पर क्यों, जों घर शामो सहर जायें

यहाँ तुम मिल नहीं सकते, वहाँ फिर क्या मिलोगे तुम

दिखा दो राह कोई ऐसी, कि दो आलम गुज़र जायें।

(3)

कुछ मत पूछो हाल किसी का।

उलझा हुआ, सवाल किसी का।।

बहक न जाना, पल भर छू के,

महका हुआ, रूमाल किसी का।

शोहरत का, हकदार बना है,

किस्मत देख, कमाल किसी का।

(4)

कोई उसको जान न पाया।

कोशिश की पहचान न पाया।।

कभी नहीं बर्तन टकराये,

ऐसा कोई मकान न पाया।

सबको बराबर करने निकला

खुद जो उँगली समान न पाया।

आते-जाते मुलाकात...

आते-जाते मुलाकात होती रहेगी।

मोहब्बत की दो बात होती रहेगी।।

कभी शेरो-नग़मा, गज़ल के बहाने,

सुबह-शाम दिन-रात होती रहेगी।

चलो झोपड़ी का, अंधेरा मिटाएं,

दीवाली, शबेरात, होती रहेगी।

 

यूं ही इक गज़ल क्या सुनाने लगे।

गुज़रे दिन सबको अपने सताने लगे।।

पलक एकटक, साकिया की उठी,

रिन्द नज़रो से चुस्की लगाने लगे।

ज़ाम का नाम सुन के, सधे पांव भी,

चलते-चलते मियां, डगमगाने लगे।

 

जब से उसका साथ मिला है।

जीने का अन्दाज मिला है।।

सुर्ख़ प्यार की, भीनी खुश्बू,

रूह को इक अहसास मिला है।

ठनगन करती नहीं जिन्दगी,

ख्वाबों को परवाज़ मिला है।

 

वक्त से करते क्या गिला यारों।

वो बड़ी देर से मिला यारों।।

उसके आते बदल गयी दुनिया,

घर लगे अब, खिला-खिला यारों।

उसकी सोहबत को तरसा किये,

दो क़दम साथ जो चला यारो।

खिली, खिली-सी चाँदनी...

खिली, खिली-सी चाँदनी खुला-खुला यें आसमां।

रात की कलाइयों पे, सज रही है कहकशां।।

सारी क़ायनात मानो, दूध से नहा उठी,

चाँद की मुंडेर पर, हँसी जो दूधिया शमां।

ये नर्म-नर्म खुश्बुएं, नहाई याद प्यार की,

भीगे रसीले होठ वाली, रातरानी मेहरबां।

 

पांवो सफर हाथ में, उजड़ा नसीब था।

तन्हा था मगर भीड़ मे, अपने करीब था।।

कोशिशें नाकामियों का, पांव छू के रह गयी,

मुर्दा क़लम से लिक्खा, शायद नसीब था।

रंगना जमाने में, यार रह गया कोरा,

नाकाम जिन्दगी का, नमूना अजीब था।

 

एक जरा-सी बात हुई, बदनाम हो गये।

हम ग़ालिब के टूटे, खाली जाम हो गये।।

ऐसा कुछ सोचा तो नहीं था, उलफत मे,

कैसे आखिर फिर बेअदब सलाम होगये।

सपने गिरवी हुए, धरोहर टूटी उम्मीदें,

सोने से पल कौड़ी और छदाम हो गये।

 

न पूछो किस तरह गुजरी, है ये बरसात की रातें।

किसी की याद में गुज़री, है ये बरसात की रातें।।

कई विपदा लिए आई, लगाती आग सीनें में,

भरी एक दर्द की गगरी, है ये बरसात की रातें।

ज़मीं से आसमां तक, रोशनाई-सी बिखेरी है,

विरह के पीर-सी बिखरी, है ये बरसात की रातें।

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

छोरा बड़ा मुतफन्‍नी निकला...

छोरा बड़ा मुतफन्‍नी निकला।

रंग मारता था रुपये की

लेकिन यार चवन्‍नी निकला।।

 

उसकी बातें हवा-हवाई

जैसे कानों में शहनाई

हर परिचय का बड़ा हिसाबी

चिल्‍लर-चिल्‍लर आना पाई

सरे आम वो धूल झोक कर

देखो काट के कन्‍नी निकला।

 

सूरत से महफिल का लुटेरा

 मुस्‍की में सबका मन फेरा

 काम बना अपना चुटकी में

 घर आंगन कर लिया सबेरा

 इस्‍तेमाल किया सीढ़ी-सा

रिश्‍ता कतर कतन्‍नी निकला। 

आई जो बरखा…

आई जो बरखा, बकंइयां-बंकइयां।
चिल्लाए खेत रे, गोंसइयां-गोंसइया।।

होंठ भीगे धरती के

झूमे गाय बछरू,

पन्नि-पन्नि बोल सजे

घनन-घनन घुंघरू,

बेवाई सहेजे, किसान पंइया-पंइया।

बिरवाही डहर चलीं

गुमसुम कुदाले,

गौरइया बोले है

धूल क्यों उछाले,

मेड़-डाँड़ मस्ती में, यार ठंइयां-ठंइया।

पलिहर की आस जगी

जरई का खेत बने,

बगुलों के भाग जगे

गिद्ध बाज बने-ठने,

सोंधी सी खुश्बू, भोगे घमछईयां।

सुधियों को सौगात मिली है...

सुधियों को सौगात मिली है,

आंसू के कुछ कन।

हुआ जाता बनवासी मन।।

इन्‍द्रधनु से बीते पल साथ,

विरह के घन में निकले आज,

स्‍वप्‍न के नील-गगन में प्राण,

भटकता फिरे पखेरू आज,

 

दृष्टि से परे वही प्रतिबिम्‍ब

महक जाता जिससे दर्पन।

 

आस के आँचल पर एक फूल

टाँकती है कर्पूरी साध,

शून्‍य में कहीं पिरहिणी प्रीति

कसक दे जाती है एकाध,

 

महावर रचती पीड़ा पाँव

तोड़ती रह-रह यादें तृन।

बुधवार, 3 सितंबर 2008

हमने जीने के भी, आदाब...

हमने जीने के भी, आदाब निराले देखे।

जैसे फुटपाथ की, दूकां पे रिसाले देखे।।

जिन्‍दगी जब भी, सलीबों के करीब आई है,

आस्‍तीं से कई सांपों का मुंह निकाले देखे।

टी-स्‍टाल, कहवा घर व होटलों में अक्‍सर,

मुब्तिला बातों में बस चाय के प्‍याले देख।


तमाशा है चन्‍द पल का, ठहर कर के देखिये।

मजमें में तनिक देर, गुजर करके देखिये।।

साहिल से गहराई, नहीं अन्‍दाज सकेंगे,

हुजूर समन्‍दर में, उतर करके देखिये।

अजान की सूरत यहां, उट्ठी हैं सदाएं,

एक बार मेरे साथ, सफर करके देखिये।


लिये वायदे तरह-तरह के, फिर नारों के शोर।

चोला बदल-बदल फिरते हैं, उजले आदमखोर।।

बजा रहे सब के सब यारों, अपनी ढपली अपना राग,

किसको फिक्र है देखे प्‍यारे, देश की दुखती पोर।

संभल जाओ, ऐ देशवासियों, वरना हाथ मलोगे,

फिर आई है हाथ तुम्हारे, इनकी नस कमजोर।


गौर फरमाएं एकाध बार चेहरों पर।

मिलेंगे अफसाने हजार चेहरों पर।।

मेकअप से छिपी है, सलवटें इनकी,

पड़ी है वक्‍त की मार चेहरों पर।

जिसे देखो वही, बर्थ-डे मनाता है,

फकत उम्र बनाए है, मजार चेहरों पर।