शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

खिली, खिली-सी चाँदनी...

खिली, खिली-सी चाँदनी खुला-खुला यें आसमां।

रात की कलाइयों पे, सज रही है कहकशां।।

सारी क़ायनात मानो, दूध से नहा उठी,

चाँद की मुंडेर पर, हँसी जो दूधिया शमां।

ये नर्म-नर्म खुश्बुएं, नहाई याद प्यार की,

भीगे रसीले होठ वाली, रातरानी मेहरबां।

 

पांवो सफर हाथ में, उजड़ा नसीब था।

तन्हा था मगर भीड़ मे, अपने करीब था।।

कोशिशें नाकामियों का, पांव छू के रह गयी,

मुर्दा क़लम से लिक्खा, शायद नसीब था।

रंगना जमाने में, यार रह गया कोरा,

नाकाम जिन्दगी का, नमूना अजीब था।

 

एक जरा-सी बात हुई, बदनाम हो गये।

हम ग़ालिब के टूटे, खाली जाम हो गये।।

ऐसा कुछ सोचा तो नहीं था, उलफत मे,

कैसे आखिर फिर बेअदब सलाम होगये।

सपने गिरवी हुए, धरोहर टूटी उम्मीदें,

सोने से पल कौड़ी और छदाम हो गये।

 

न पूछो किस तरह गुजरी, है ये बरसात की रातें।

किसी की याद में गुज़री, है ये बरसात की रातें।।

कई विपदा लिए आई, लगाती आग सीनें में,

भरी एक दर्द की गगरी, है ये बरसात की रातें।

ज़मीं से आसमां तक, रोशनाई-सी बिखेरी है,

विरह के पीर-सी बिखरी, है ये बरसात की रातें।

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