रविवार, 3 अगस्त 2008

गोरी अब के सवनवां...

गोरी अब के सवनवां दगा दइ गै राम।

पीर पूछौ न यक से सवा कइ गै राम।।


दिनै-दिन मेघा आवैं अकासे,

बरसे बिना जांय दइ-दइ कै झांसे,

गिनि-गिनि तरइया भोरहरी निहारी

कल्झि-कल्झि जाय रे भुंइयां तरा से,

पुरवा संग बदरवा, दफा होई गै राम।


पानी बिना पियरानी बैठाई बेरन,

पियासा मुरैला, मुरैली सगर वन,

रिमझिम फुहारै, भूलीं डगरिया

बहकी बयरिया, धूरि उड़ै सेरन,

सीपी कै सपनवा, हवा हौइ गै राम।

बालू फिलोलै, बौलै टिपोरा,

भुंइ कहै घामे से, खीस न निपोरा,

खेत, मेड़, गंउवा, सेवान मुंह लटका

बरखा कै बूंदी लागै टिकोरा,

सूखा के रसोइयां नवा होइ गै राम।

चरवाहा

उठ भिनसारे खूंटा धाये,

नित चरवाहा ढोर चराये

हँसी बिखेरे टका छदाम

सबके आगे राम-राम।

 

पीर करेजे की मुँह बाये

पग के छाले सीस नवाये

नैनों के परकोटे में अब

अंजुरी भर-भर सरसों आये

जी का दुखड़ा जेठ का घाम।

 

सुख की खातिर हाथापाई

दुख उसका मुंहबोला भाई

तोला-माशा रत्ती-रत्ती

उम्र चुकाना पाई-पाई

पेट की रोटी चारोधाम।


चरागाह में आम की छुइयां

बातें करता जैसे टुइयां

सुबह-शाम दोपहरी जीता

सपनों के डाले गलबहियां

लाठी-बंशी आठोयाम।

अभी गये तुमको...

अभी गये तुमको दो-चार दिन हुए।

लगता है जैसे, हजार दिन हुए।।

 

दिन का रंग उड़ा-उड़ा, शामें घबराई सी,

रातों की तड़पन से, सुबहें मुरझाई-सी,

पूछो न दुःख के, अम्बार दिन हुए।

 

मौसम के खाते मे, खुश्बू का नाम है,

आँखों से ओझल, बस फूलों का ग्राम है,

हँसती बहार के, फरार दिन हुए।

 

चुभती-सी दर्पन में याद की पिनें,

उंगलियों पे कब तक, हम पल-घड़ी गिनें,

दुखिया के मन की, पुकार दिन हुए।